नमस्ते नरसिंहाय प्रहलाद आहलाद - दायिने ।
हिरण्यकशिपोर् वक्षः - शिला - टंक नखालये ।।
इतो नृसिंहः परतो नृसिंहो यतो यतो यामि ततो नृसिंहः ।
बहिर् नृसिंहो हृदये नृसिंहो नृसिंहम् आदिं शरणं प्रपद्ये ।।
तव कर - कमल - वरे नखम् अद्भुत - श्रृंगं
दलित - हिरण्यकशिपु - तनु - भृङ्गम् ।
केशव धृत - नरहरि - रुप जय जगदीश हरे
जय जगदीश हरे जय जगदीश हरे जय जगदीश हरे
मैं नृसिंह भगवान् को प्रणाम करता हूँ जो प्रह्लाद महाराज को आनन्द प्रदान करने वाले हैं तथा जिनके नख दैत्य हिरण्यकशिपु के पाषाण सदृश वक्षस्थल पर छेनी के समान हैं । नृसिंह भगवान् यहाँ हैं और वहाँ भी हैं । मैं जहाँ कहीं भी जाता हूँ वहीं नृसिंह भगवान् हैं । वे हृदय में हैं और बाहर भी हैं । मैं नृसिंह भगवान् की शरण लेता हूँ जो समस्त पदार्थों के स्रोत तथा परम आश्रय हैं ।
हे केशव ! हे जगत्पते ! हे हरि ! आपने नर - सिंह का रूप धारण किया है । आपकी जय हो । जिस प्रकार कोई अपने नाखूनों से भंग ( ततैया ) को आसानी से कुचल सकता है उसी प्रकार ततैया सदृश दैत्य हिरण्यकशिपु का शरीर आपके सुन्दर करकमलों के नुकीले नाखूनों से चीर डाला गया है ।